स्त्रियों के इस पर विचार करने पर ज्ञात होता है कि सम्बन्धों की विविधता के अनेक रंगों को समेटे थे आदि काल से एक ‘संस्था’ के रूप में जीवन के रंगमंच पर अभिनय करती रही हैं। उनके कुछ चरित्र भारतीय मनीषा की दृष्टि में सर्वोपरि, सर्वोत्कृष्ट रहे हैं तो कुछ पर सदैव प्रश्न, पाबन्दियों की दीवार खड़ी करने का प्रयत्न चलता रहा है। स्त्री ने परम्परा, तत्त्वज्ञान एवं आधुनिकता के क्षितिज पर अपनी सशक्त उपस्थिति दर्ज करायी है।
अभिलेखों के आलोक में राजनय सैन्य-संचालन से लेकर प्रत्यक्ष शासन तक स्वियों की महत्वपूर्ण भूमिका दिखाई देती है। सातवाहन, इक्ष्वाकु, गुप्त, वाकाटक इत्यादि राजवंशों के अभिलेख स्त्रियों की शासन- दक्षता एवं इनके लोकोपकारी कृत्यों के साक्षी हैं। लेकिन भारत की दोनों ही विचार सरणियों (ब्राह्मण एवं श्रमण) में स्त्रियों के प्रति एक ही प्रकार के तिरस्कार का भाव मिलता है, जिसका बिम्ब स्त्रियों के लिए गढ़े विशेषणों में देखा जा सकता है यथा-‘अधना’, ‘निरीन्द्रिय’, ‘अदाया’, ‘अनृता’, ‘मृद्धी’, ‘लोलकर्णी’, ‘अप्रतिवादिनी’, ‘अबला’, ‘स्वर्ण जरित खुरी’ इत्यादि। ये विशेषण इनके व्यक्तित्व को परावलम्बी एवं अश्विनी सिद्ध करते हैं।
उल्लेखनीय है कि स्त्रियों के सम्बन्ध में ये विचार साहित्य एवं शास्त्र परम्परा के हैं। इनसे हटकर राज्य एवं राजाओं की ओर से निर्गत अभिलेखों के अध्ययन से प्रतीत होता है कि स्त्रियाँ आर्थिक रूप से सशक्त एवं प्रशासनिक दक्षता से युक्त थीं। अभिलेखों में अनेक राजरानियाँ सह शासिका, संरक्षिका ( नागनिका, बलश्री, प्रभावती गुप्ता, कर्पूर देवी इत्यादि), शासिका, राज्य की मुख्य पदाधिकारी (तलवरी, महाभोजी, प्रतिहाररक्षी, महाप्रतिहारपीठा इत्यादि) यज्ञकर्त्री, महादानी (शान्तिद्री, नागनिका, नोहला) निर्मात्री के रूप में राज्य एवं समाज को अपना अप्रतिम योगदान देती हुयी दिखाई देती हैं। इन्हें अभिलेखों में अग्रमहिषी, रत्न, अलंकार, प्राण-मन्दिर, एवं औषधि की संज्ञा दी गयी है, जो इनकी सम्मान जनक स्थिति का परिचायक है।
अस्तु स्त्रियों की वास्तविक स्थिति के परिज्ञान हेतु मैंने ‘भारतीय अभिलेखों’ का चयन किया है। अभिलेख शब्द एवं पदार्थ ( Mind and Material ) के सायुज्य हैं तथा इतिहास संरचना के वस्तुनिष्ठ साक्ष्य माने जाते हैं। अस्तु इनके द्वारा प्रदत्त सूचना ‘इहितास’ के सन्निकट होती है। इस पुस्तक में प्राक् मौर्य काल से लेकर बारहवीं शती ई० के प्रमुख भारतीय अभिलेखों में विवृत राजरानियों एवं सामान्य पुराङ्गनाओं (अप्सराओं, देवदासियों, जंगली जन-जातियों की स्त्रियों) के व्यक्तित्व एवं कृतित्व का आलेख प्रस्तुत है।
प्रो० विपुला दुबे, देवरिया जनपद (उ० प्र०) के अण्डिला ग्राम में सन् 1956 में जन्म स्व० माता यशोदा देवी एवं पिता पं. सत्यदेव उपाध्याय प्रथम श्रेणी में स्नातक एवं स्नातकोत्तर की उपाधि गोरखपुर विश्वविद्यालय, गोरखपुर से क्रमशः सन् 1975, 1977 में प्राप्त की। यहीं से पी-एच. डी. की उपाधि भी प्राप्त किया। सन् 1980 में प्राचीन इतिहास, पुरातत्त्व एवं संस्कृति विभाग में प्रवक्ता के पद पर नियुक्ति हुयी। विभाग में 2018 तक आचार्य एवं अध्यक्ष के पद पर कार्य किया। गोरखपुर विश्वविद्यालय महिला परिषद (Guwwa) की पूर्व अध्यक्ष। इतिहास की विविध विधाओं में से अभिलेखशास्त्र, मुद्राशास्त्र, लिपिशास्त्र एवं इतिहास लेखन विशेष अध्ययन एवं रुचि के क्षेत्र हैं।
प्रकाशित एवं सम्पादित ग्रन्थ : ‘आभिलेखिकी के विकास के सन्दर्भ में गुप्त अभिलेखों का साहित्यिक अध्ययन,’ विभागीय शोध पत्रिका ‘पूर्वी’ का सम्पादन, विश्वविद्यालय की सांस्कृतिक स्मारिका ‘सबद’, ‘विश्ववारा’ का सम्पादन, ‘Probings into Indian Culture: Prof. V. S. Pathak as a Historian का सम्पादन तथा प्राचीन भारतीय अभिलेखों में इतिहास परम्परा एवं संस्कृति, नारी अतीत से वर्तमान तक ग्रन्थों का सम्पादन विभिन्न राष्ट्रीय एवं अन्तर्राष्ट्रीय शोध पत्रिकाओं में 70 शोध पत्र प्रकाशित हैं।
अनेक राष्ट्रीय संगोष्ठियों भारतीय लोक परम्परा एवं संस्कृति (2009), ‘प्राचीन भारतीय अभिलेखों में इतिहास परम्परा एवं संस्कृति’ (2013), ‘भारतीय संस्कृति में सह-अस्तित्व की अवधारणा एवं उसकी वैश्विक प्रासंगिकता’ (2015), ‘नारी अतीत से वर्तमान तक’ (2015), ‘प्राचीन भारत में पर्यावरण की ‘चेतना’ (2016), ‘भारतीय समाज में स्त्री : यथार्थ एवं चुनौतियाँ (2017) का संयोजन विभिन्न राष्ट्रीय एवं अन्तर्राष्ट्रीय संगोष्ठियों में सहभागिता एवं शोध-पत्र का वाचन पुनश्चर्या एवं अभिविन्यास पाठ्यक्रमों में व्याख्यान अनेक अकादमिक संस्थाओं तथा समितियों की आजीवन सदस्य विश्वविद्यालय के विभिन्न अकादमिक, प्रशासनिक एवं सांस्कृतिक गतिविधियों में सक्रिय सहभागिता रही है।
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