समग्र धर्मशास्त्र वाङ्मय में मनु एवं याज्ञवल्क्य का स्थान सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण है। मनु स्मृतिशास्त्र के प्रथम प्रणेता हैं। याज्ञवल्क्य ने मनु का अनुगमन करते हुये उनके मन्तव्यों को देश, काल एवं परिस्थिति के अनुसार अपेक्षित व्यवस्थाओं को समाविष्ट करके संक्षिप्त, परिष्कृत तथा वैज्ञानिक रूप देते हुये याज्ञवल्क्य स्मृति का प्रणयन किया।
याज्ञवल्क्य स्मृति पर विज्ञानेश्वर योगी कृत मिताक्षरा टीका अत्यन्त विशद एवं सर्वाधिक महत्वपूर्ण व्याख्या है, किन्तु अब तक प्रबन्ध के रूप में केवल उसके व्यवहार अध्याय का अध्ययन ही उपलब्ध है, जबकि मिताक्षरा के व्यवहार अध्याय की भाँति ही इसके अन्य दो अध्यायों पर विज्ञानेश्वर द्वारा की गयी टीका भी अत्यन्त गाम्भीर्ययुत तथा गूढ़ रहस्यों को उद्घाटित करने वाली है। आधुनिक सन्दर्भ में भी मिताक्षरा के मन्तव्यों का महत्त्व अक्षुण्ण है।।
इसी तथ्य की पूर्ति हेतु प्रस्तुत ग्रन्थ में मिताक्षरा के व्यवहार अध्याय के साथ-साथ उसके अनालोचित शेष दो अध्यायों आचार एवं प्रायश्चित्त को भी अनुसन्धान की परिध में समाहित करते हुये उनकी तार्किक समीक्षा प्रस्तुत की गई हैं। इस पुस्तक में समग्र धर्मशास्त्र वाङमय की पृष्ठभूमि में याज्ञवल्क्य स्मृति तथा उसकी टीका मिताक्षरा की युगानुकूल समीक्षा तथा उसके किया गया है। साम्प्रतिक अवदान को उद्घाटित करने का प्रयास संक्षेपत: यह ग्रन्थ धर्मशास्त्र तथा स्मृतियों के विद्यार्थियों तथा गवेषकों के साथ ही वर्तमान हिन्दू विधि के अध्येताओं के लिये भी अत्यन्त उपादेय है।
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