भारतीय मध्य वर्ग की त्रासदी मूलत: परिवार से जुड़ी है। सामाजिक दृष्टि से उच्च वर्ग से जुड़ने की प्रक्रिया में मध्य वर्ग पर जो आर्थिक मार पड़ती है, उसका परिणाम परिवार की टूटन है। इस विकृति के मूल में तो अर्थव्यवस्था ही है, किन्तु इसका सामाजिक जीवन पर भी गहरा प्रभाव पड़ता है। उपभोक्तावादी संस्कृति के कारण नौकरीपेशा मध्य वर्ग या तो परिस्थितियों से समझौता करके भ्रष्टाचार में आकंठ डूब जाता है, या फिर सिद्धान्तों के जाल में फंसकर पारिवारिक बिखराव का शिकार हो जाता है। इसका गहरा प्रभाव दाम्पत्य संबंधों पर भी पड़ता है। तूफान के बाद’ समाज की इसी पृष्ठभूमि पर आधरित उपन्यास है, जिसमें ग्रामीण परिवेश में पोषित प्रतिभाशाली युवक की सिद्धान्तवादिता उपभोक्तावाद और नगरीकरण के सामने बिखर जाती है या यों कहें कि कोरे सिद्धान्त के कारण वह इन सबसे टकराने की कोशिश में स्वयं टूट जाता है।
उपन्यास का शिल्प सराहनीय है। संवादों के माध्यम से कथा का विकास, पात्रानुकूल भाषा का विन्यास, अवधी के ठेठ प्रयोग से लेखक ने भाषिक संरचना को भी कथा के इर्द-गिर्द ही रहने दिया है और कृत्रिमता नहीं आने दी है।
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