सपनों में बनता देश (दो खंड)
राजेन्द्र माथुर भारत के उन गिने-चुने पत्रकारों-संपादकों में रहे हैं, जिन्हें भारत के इतिहास, धर्म, समाज, साहित्य, संस्कृति और राजनीति में गहरी दिलचस्पी थी।
पत्रकार होने के नाते रोजमर्रा की राजनीति पर लिखना उनका प्रमुख कर्म था। पहले इंदौर से प्रकाशित ‘नई दुनिया’ और फिर नई दिल्ली से प्रकाशित ‘नवभारत टाइम्स’ में वे संपादकीयों के अलावा भी नियमित रूप से लिखते रहे। वैसे तो प्रायः सभी विषयों पर उन्होंने लिखा है, लेकिन राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय विषयों पर उनका विलक्षण विश्लेषण बौद्धिक उत्तेजना पैदा करने वाला रहा है। उनके लेख अपने गंभीर राष्ट्रीय सरोकारों और सशक्त भाषा के कारण पाठक का पीछा करते हैं। नई दिल्ली में रहते हुए राजेन्द्र माथुर द्वारा लिखे गए लेखों का यह वृहद् संकलन इस बात की पुष्टि करता है।
माथुर साहब ने अंग्रेजी साहित्य में एम.ए. किया था और अंग्रेजी भाषा पर उनकी पकड़ अंग्रेजी पत्रकारों को भी विस्मय में डालती थी। लेकिन उन्होंने हिंदी पत्रकारिता को चुना तो शायद इसलिए कि वे अपनी बात अधिक से अधिक लोगों तक पहुंचाना चाहते थे। अगर यह कहा जाए कि हिंदी पत्रकारों की एक पीढ़ी माथुर साहब को पढ़कर पली और बढ़ी है तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी। उनके उत्कट राष्ट्र-प्रेम, समाज के प्रति उनके सरोकारों, इतिहास की अतुल गहराइयों से अनमोल तथ्य ढूंढ़ लाने के उनके सामर्थ्य और शालीन भाषा में राजनेताओं की खिंचाई करने के उनके साहस पर हिंदी समाज मुग्ध रहा है।
माथुर साहब को भारतदृष्टि को कितना नीरद चौधरी ने बनाया है तो कितना जवाहरलाल नेहरू और मोहनदास करमचंद गांधी ने या कितना रोमिला थापर और इरफान हबीब ने बनाया है तो कितना रामायण और महाभारत ने यह सही-सही नहीं कहा जा सकता। हां, यह जरूर लगता है कि माथुर साहब गांधी और नेहरू से बहुत प्रभावित रहे हैं। दरअसल उनके यहां हर विचार का आदर है, बशर्ते वह भारत को समझने में सहायक हो ।
एक स्तर पर भारत की खोज करते हुए माथुर साहब कहते हैं कि भारत के लोगों ने इस देश में रहने और बसर करने की एक अद्भुत शैली खोज ली थी। इस शैली के कारण अमरनाथ से रामेश्वर तक और द्वारका से कामरूप तक एक ऐसे समाज की हमने रचना की जिस पर लाखों विविधताओं के बावजूद एकता की छाप थी। समाज निर्माण का विलक्षण ढांचा या सांचा तो हमने बनाया, पर राजसत्ता कैसी हो, इस बारे में हमने नहीं सोचा।
– मधुसूदन आनंद
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