ग्रन्थ के बारे में:
आज से हजारों वर्ष पूर्व व्यासदेव ने वर्तमान में प्रचलित दिशाहीन जाति व्यवस्था को व्यवस्थित स्वरूप एवं आधार प्रदान करने के लिए ग्रन्थारम्भ में कर्मणा जाति व्यवस्था को उचित माना है। आज की पर्यावरण तथा जलसंरक्षण समस्या को व्यासदेव ने धार्मिक रूप देकर उसे समाज की आस्था से जोड़ दिया, जो आज के करोड़ों के राजकीय विज्ञापन से अधिक प्रभावी है। इसके कथानक अत्यन्त रोचक, विस्मित करने वाले होकर भी हृदयग्राही, शिक्षाप्रद सन्देश से अनुप्राणित कर रहे हैं। वास्तव में, ग्रन्थ आज के परिवेश के लिए व्यासदेव का अनमोल आशीर्वाद है।
श्रीभविष्यमहापुराणम् का मूलाधार त्रिकालभेदी दृष्टि तथा पदार्थ एवं चेतना का त्रिआयामी दर्शन है। सृष्टि की आदि अवस्था से लेकर आज के सामाजिक, धार्मिक तथा प्राकृतिक समस्याएं और उनका निराकरण, यज्ञ, दान, इष्ट एवं पूर्त कर्तव्य कर्म भी वर्णित हैं।
योग तथा सांख्य का सारतत्त्व भी अपने यथार्थ रूप में इस ग्रन्थ में परिलक्षित होता है। श्रीभविष्य- महापुराणम् अध्यात्म के साथ इतिहास का भी बिम्बबोध है। वर्तमान के तल पर अतीत की स्मृति तथा भविष्य का आभास है।
व्यासदेव कहते हैं-अखण्ड कालरूप परमेश्वर के वक्ष पर यह भविष्य की लीला चलती रहती है। अपने भाव के अनुरूप मनीषी उसका वर्णन करते हैं। यह वर्णना बिम्बवत सांकेतिक तथा रूपकात्मक होती है। यही उसका लालित्य है। यही भविष्यपुराण की विशेषता है। यही भविष्यलीला व्यासदेव के चिदाकाश में साकार होकर इस पुराण के रूप में हमें प्राप्त है उनकी वाग्विभूति का विस्तार ही इसका स्वरूप है। परमतत्त्व का अवबोध ही इस ग्रन्थ का सार है।
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