भारतीय कला के क्षेत्र में नाट्यशास्त्र का आशय मात्र एक ग्रन्थ नहीं, अपितु कई सहस्राब्दियों में फैली एक सम्पन्न नाट्य-परम्परा भी है। भारतीय रंगमंच की निजता और पहचान के संदर्भ में इस परम्परा की नाभिकीय स्थिति है।
इस पुस्तक में नाट्यशास्त्र और उससे अनुषक्त कला- परम्परा के साथ संस्कृत नाटक और रंगमंच की भारतीय परम्परा के अनेक आयाम उन्मीलित हुए हैं। विशेष रूप से लेखक का यह प्रयास रहा है कि भूमण्डलीय परिप्रेक्ष्य में नाट्यशास्त्र की परम्परा के महत्त्व को समझा जाय। इसलिये पश्चिमी नाट्यचिन्तन तथा विशेष रूप से पश्चिम के कतिपय महत्त्वपूर्ण रंग-निर्देशकों के अवदान की मीमांसा भी यहाँ की गई है, जिन्हें भारतीय नाट्यपरम्परा की पारस्परिकता में रख कर विश्वनाट्य की उभरती सम्भावनाएँ जानी जा सकती हैं।
संक्षेपतः यह पुस्तक रंगमंच व नाटक के अध्येताओं तथा कला के क्षेत्र में रुचि रखने वालों के लिए उपादेय होगी
राधावल्लभ त्रिपाठी
जन्म – 15.02.1949, मध्यप्रदेश के राजगढ़ जिले में
शिक्षा – एम.ए., पी.एच.डी., डी.लिट्. वर्तमान पद आचार्य तथा अध्यक्ष, संस्कृतविभाग, सागर विश्वद्यिालय,सागर (म.प्र.) ।
कार्यानुभव 1990 ई. से विश्वविद्यालय मेंअध्यापन, शोधनिर्देशन, शोधकार्य तथा हिन्दी और संस्कृत में मौलिक लेखन।
प्रकाशन पत्रपत्रिकाओं में प्रकाशित चालीस
कहानियों तथा 30 निबन्धों के अलवा हिन्दी तथा संस्कृत में अब तक 51 पुस्तकें तथा 69 शोधपत्र प्रकाशित, जिनमें हिन्दी में तीन कहानी संग्रह, एक उपन्यास तथा संस्कृत में दो कविता संग्रह शमिल हैं। हिन्द में लिखी कुछ मौलिक कहानियां मराठी और मलयालम में अनूदित होकर प्रकाशित हुई हैं। दस से अधिक संस्कृत नाटकों के हिन्दी अनुवाद तथा कुछ मौलिक नाटक भी प्रकाशित।
पुरस्कार राष्ट्रीय स्तर के अनेक पुरस्कार तथा सम्मान, जिनमें उत्कृष्ट शोधकार्य के लिये एशियाटिक सोसायटी, बम्बई, म.प्र. पी वी. काणे स्वर्णपदक तथा 1994 का साहित्य अकादेमी पुरस्कार उल्लेख्य हैं। संस्कृत कविता की लोकधर्मी परम्परा, काव्यशास्त्र तथा काव्य, सन्धानम् कविता-संग्रह आदि कृतियाँ चर्चित हुई।
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