‘रस’ शब्द में व्याप्त आनन्दमयता ही संभवत: काव्यानन्द का मूल है। मूर्तता और अमूर्तता के बीच सिर्फ अनुभव किया जा सकने वाला आहह्लादस्वरूप रस है। मूर्त्त साधन द्वारा प्रस्तुत होने वाली प्रस्तुति विषय भी रस है। यही नहीं, प्रस्तुति विषय में निहित अनुभूति का अमूर्त तत्त्व भी रस ही है। रस की त्रिध्रुवीय प्रक्रिया स्वरूप वाले रस की प्रचुरता अथर्ववेद में है। संभवतः यही कारण रहा कि ब्रह्मा ने पंचम वेद नाट्य की रचना करते समय इस अथर्ववेदीय रस- तत्व को ग्रहण किया। संस्कृत साहित्य की समृद्धतम धारा नाटक जनरुचि की व्यापकता और जन भावना की श्रेष्ठ प्रधानता के कारण ही अधिक उपयोगी है। भास और भवभूति- दोनों ही ‘कवि’ और ‘नाटककार दोनों ही रूपों में पृथक्-पृथक् वृहत् आकाश हैं। दोनों के नाटक जितने साहित्यिक और अभिनेय हैं, समांतर रूप से उतने ही सहज रूप से लोक-परम्परा का भी प्रतिनिधित्व करते हैं और इस प्रकार नाटक के ध्येय ‘जनरुचि की व्यापकता’ का समर्थन करते हैं। भास की तेरह नाट्यकृतियों में से दो रामकथा पर आधारित है। भवभूति की तीन नाट्यकृतियों में से दो रामकथा पर आधारित हैं। भास और भवभूति के इन -दो नाट्यों में से एक-एक ‘वीर’ रस प्रधान है और एक एक ‘करुण’ रस प्रधान है। ये चारों नाटक साहित्यिक और अभिनेय भी हैं और समांतर सहजता से लोक-परम्परा के भी प्रतिनिधि ग्रन्थ हैं। ये नाटक पठन, श्रवण, अभिनय और दर्शन किसी भी रूप में सामाजिकों के हृदय को विश्रान्ति प्रदान करने में सक्षम हैं।
प्रस्तुत ग्रन्थ में भास और भवभूति के इन नाटकों में रस-प्रयोग विषयक चिन्तन परीक्षण और विवेचन किया गया है।
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