पूर्व कथन
राजस्थान भारतभूमि का प्रागैतिहासिक काले से ही एक ऐसा भूखण्ड रहा है जहाँ भारत की प्राचीन सभ्यता और संस्कृति के बीज मिलते हैं। इसकी वैविध्यमय प्रकृति की अपनी छटा और मनोरमता रही है। इसके शौर्य, ओज, वीरता और बलिदान का इतिहास तो विश्वविख्यात है ही । राष्ट्र की मुख्य धारा में सदैव उपस्थित, इसकी साहित्यिक और सांस्कृतिक प्रवृत्तियाँ समानान्तर प्रहमान प्रायः वे ही रही हैं, जो शेष राष्ट्र में समय-समय पर रहीं। विशेषकर उत्तर भारत की सांस्कृतिक आत्मा के साथ तो इसकी आत्मा सदैव एक रही है। इतिहास के विस्तृत कालखण्ड में, राजनैतिक अवरोधों के कारण भले ही कहीं विसंगति और विषमता नजर आये।
यहाँ केन्द्रीय कथ्य, देश की सन्त परम्परा, सन्त-सम्प्रदाय और उनका दर्शन-चिन्तन ही है। अतः सन्त परम्परा के उद्भव और विकास को परम्परा के पृष्ठ उलटने से संज्ञान होता है कि उत्तर भारत की मध्यकालीन भक्तिधारा में सगुण और निर्गुण साकार और निराकार की जो प्रवृत्तियाँ दृष्टिगोचर होती है-उस मध्यकाल में, वे राजस्थान में भी किसी न किसी रूप में विद्यमान यो निश्चित रूप से यह भक्तिसाधना कहीं बाहर से नहीं आई। वैदिक साधना परम्परा का ही यह प्रकारान्तरित प्रस्फुटन है जो सगुण-निर्गुण रूप में प्रचलित हुआ। स्वामी रामानन्द ने निर्गुण ब्रह्म का प्रतिपादन किया जिसे कबौर आदि ज्ञानमार्गी सन्तों ने अपनाया। ब्रह्म का परापरत्व अथवा त्रिगुणातत्व ऋग्वेद में विद्यमान है । उपनिषदों और गोवा के विकासक्रम से गुजरता हुआ, यह निर्गुण भक्ति-दर्शन सन्तों तक पहुँचा है। वैदिक परम्परा का कर्मकाण्डीय रूप जो उसके चिन्तन-दर्शन से उपजा था, कालान्तर में बहुत विकृत हो गया था। ब्राह्मणों और पुरोहितों ने उसके बाह्याचार पर ही जोर दिया और धर्म के नाम पर कई रूड़ियाँ और अन्धविश्वास समाज में फैल गये । सन्त-दर्शन इस सबके खिलाफ विद्रोह के रूप में जन्मा । यह एक वैचारिक- आचारिक प्रतिक्रिया का परिणाम था।
पन्द्रहवीं शताब्दी में स्वामी रामानन्द के शिष्य कबीर सन्त-दर्शन के शलाखा पुरुष के रूप में अवतरित हुए। बाद में इनकी शिष्य-परम्परा ने कई सन्त-पंथों को जन्म दिया। इसका प्रभाव राजस्थान पर भी पड़ा। यहां अनेक सन्त हुए। विश्नोई, जसनाथी, लालदासी, दादूपंथ, चरणदासी, रामस्नेही आदि कई सन्त-सम्प्रदायों को मूल जन्मस्थली यही प्रदेश है। राजस्थान की सन्त परम्परा बड़ी पुष्ट रही है—और आज भी यह परम्परा यहाँ अविच्छिन्न रूप में विद्यमान है।
सन्त केवल निर्गुण परब्रह्म के शास्त्रीय तत्ववेता ही नहीं थे, वे इस मार्ग के अनुभवी पथिक थे। ब्रह्म परलोक मोक्ष आदि के चिंतन और अनुभव ज्ञान के साथ वे अपने समय, अपने समाज और अपने परिवेश की विकृतियों और बुराइयों से भी परिचित थे। शुद्ध सात्विक जीवन के साथ वे समता पर आधारित एक आदर्श मानव समाज की विरचना के पक्षधर थे। इसीलिये उन्होंने धार्मिक और सामाजिक कदाचारों और बुराइयों का प्रखर विरोध किया। वे एक निर्वर्ण समाज के उद्घोषक थे जिसमें वर्ण, जातिया और वर्ग कहीं नहीं थे। अपने समय और समाज के वे जागरूक प्रहरी थे। परब्रह्म के चिंतन में और समाज के चितन में वे सर्वत्र एकरूप रहे। राजस्थान के सभी सन्त-सम्प्रदायों की चिन्तन और दर्शन की आधारभूमि यही रही है। उन्होंने दलितों, पतितों और वंचितों को उकसाया नहीं वे सामाजिक परिवर्तन के अग्रदूत थे। उनके दर्शन-चिंतन की यह अर्थवत्ता और सन्देश आज की परिस्थितियों में कितनो प्रासंगिक और सार्थक है-यह प्रकट है। राजस्थान के इन संतों और सन् -मम्प्रदायों का भाषा साहित्य और कविता को जो योगदान है, वह भी उल्लेखनीय है। उन्होंने लोक भाषा में रचनाएँ को लोकमनीषा को जो उत्प्रेरण उन्होंने अपने साहित्य से दिया, वह राजस्थान के लोक समाज की अमूल्य सम्पदा है।
प्रस्तुत कृति इसी उद्देश्य से तैयार की गयी है कि हमें अपने प्रदेश की सांस्कृतिक धाराओं का ज्ञान हो। हमारे सन्तों की भक्ति-साधना के साथ उनके उस महत् योगदान का भी हमें पता चले, जो समाज के क्रान्तिकारी परिवर्तन की भूमिका में उनका रहा है। और कि राष्ट्र कि मुख्य सांस्कृतिक-साहित्यिक धारा में यह प्रदेश कहाँ अवस्थित है। आशारानी लखोटिया ट्रस्ट नई दिल्ली के अध्यक्ष आदरणीय श्री रामनिवास लखोटिया ने राजस्थानी साहित्य प्रकाशन की अपनी योजना के अन्तर्गत इसे प्रकाशनार्थ स्वीकार कर मुझे अत्यंत अनुग्रहित किया है। मैं किन शब्दों में उनके प्रति अपनी कृतज्ञता का ज्ञापन करूं, समझ में नहीं आता।
राजस्थानी ग्रन्थागार के मालिक मेरे अनुज समान मित्र श्री राजेन्द्र सिंगवी ने इसे जिस तत्परता से प्रकाशित किया है, उन्हें मैं स्नेह-शब्द ही दे सकता हूँ। उनके और मेरे बीच लेखक-प्रकाशक के सम्बन्ध नहीं है। और अन्त में, यह पुस्तक अब सुधी पाठकों के हाथ में पहुँच रही है। मुझे उनकी प्रतिक्रिया की प्रतीक्षा रहेगी ।
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