विगत 125 वर्षों में उपनिषदों पर दर्जनों उत्कृष्ट ग्रंथ प्रकाशित हुए हैं किंतु उन पर अब तक केवल दो ही महाकोश देखने में आए हैं। एक तो कर्नल जी.ए. जेकब (1891) का और दूसरा पं० गजानन शंभु साधले (1940) का। डॉ० वेदवती वैदिक द्वारा रचित यह महाकोश उस महान परम्परा को आगे बढ़ाता है। उक्त दोनों महाकोशों से यह महाकोश इस रूप में भिन्न है कि यह बहुभाषी है। इसमें मूल मंत्र संस्कृत में हैं। उनका अनुवाद पहले हिंदी में और फिर अंग्रेजी में दिया गया है। बीच में मूल मंत्र का रोमन लिप्यंतरण भी है। उक्त में दोनों महाकोशों में उपनिषदों के शब्दों और वाक्यों के संदर्भ-स्रोत सरलता से खोजे जा सकते हैं किंतु इस महाकोश में मंत्रों के अक्षरों और शब्दों की बजाय उनके अर्थों पर ध्यान केंद्रित किया गया है। इसीलिए यह उपनिषदों का अक्षर-कोश या शब्द कोश या वाक्यकोश होने की बजाय उनका अर्थ-कोश या तत्व-ज्ञान कोश अधिक है। इसीलिए यह महाकोश अपूर्व बन गया है।
डॉ० वेदवती वैदिक ने इस महाग्रंथ को तैयार करते समय इस बात का ध्यान रखा है कि यह केवल संदर्भ-स्रोत बनकर न रह जाए अपितु यह उपनिषदों की दार्शनिक और आध्यात्मिक मान्यताओं को प्रामाणिक रूप में प्रस्तुत कर सके। इसका सबसे बड़ा लाभ यह होगा कि इस ग्रंथ को संस्कृत के पंडित और शोधकर्त्ता तो अपने लिए उपयोगी पाएंगे ही, यह ग्रंथ दर्शन और अध्यात्म में रुचि रखनेवाले सामान्यजन के लिए भी पठनीय और प्रेरणादायक होगा। इसकी पहुंच देश और विदेश में एक जैसी होगी।
औपनिषदिक साहित्य के क्षेत्र में इस उपनिषद् तत्वज्ञान महाकोषः का महत्व एतिहासिक है। कई दशकों के गहन अध्ययन और शोध के आधार पर रचित यह महाग्रंथ बालगंगाधर तिलक, डॉ० सर्वपल्ली राधाकृष्णन, आर. डी. रानाडे, पं० साधले और कर्नल जी.ए. जेकब, पाल डायसन मेक्समूलर, ए. बी. कीथ आदि की महान परंपरा में अपने ढंग की अनुपम कृति है। उपनिषदों को आत्मसात कर तत्संबंधी अनेक ग्रंथों का प्रणयन करने वाली डॉ. श्रीमती वेदवती वैदिक की उपनिषद् जगत को यह अन्तिम और अप्रतिम भेंट है।
डॉ. वेदवती वैदिक
उपनिषद् – विद्या और वेदवती वैदिक एक-दूसरे के पर्याय बन गए हैं। उपनिषदों के भारतीय और विदेशी विद्वानों में उनका स्थान अप्रतिम है। भारत के शीर्षस्थ विद्वानों, राष्ट्रपतियों, प्रधानमंत्रियों व समीक्षकों ने उनके द्वारा सृजित उपनिषद् – साहित्य की भूरि-भूरि सराहना की है। दिल्ली विश्वविद्यालय से संस्कृत में बी.ए. (ऑनर्स) और एम.ए. करने के पश्चात् उन्होंने ‘श्वेताश्वतर उपनिषद् के भाष्यों का एक अध्ययन’ विषय पर 1977 में पीएच.डी. की उपाधि प्राप्त की। उपनिषद् विद्या पर उनके ये ग्रंथ प्रकाशित हुए हैं- ‘श्वेताश्वतर उपनिषद् : दार्शनिक अध्ययन’, ‘उपनिषदों के ऋषि’, ‘उपनिषद् वाड्मय विविध आयाम’, 8 ‘उपनिषदों के निर्वाचन’ और ‘उपनिषद्युगीन संस्कृति’। उन्होंने भगवद्गीता का हिन्दी और अंग्रेजी अनुवाद किया है, जो देश और विदेश में बहुत लोकप्रिय हुआ है। इस ग्रंथ के अनेक संस्करण हो चुके हैं। लगभग तीस वर्षों के अथक परिश्रम से निर्मित यह महाग्रंथ ‘उपनिषद्-तत्वज्ञान महाकोष’ उनकी अंतिम कृति है।
उन्होंने ‘निःश्रेयस न्यास द्वारा प्रकाशित ‘त्वदीयम्’ एवं ‘आधुनिक भारतीय विचारक’ नामक दो ग्रंथों का संपादन भी किया है। इसके अतिरिक्त अनेक प्रतिष्ठित शोध-पत्रिकाओं, संपादित पुस्तकों और अभिनंदन ग्रंथों में उनके वेद, उपनिषद्, भारतीय संस्कृति एवं पर्यावरण पर अनेक शोध-पत्र प्रकाशित हुए हैं। वे ‘अखिल भारतीय प्राच्यविद्या परिषद्’, ‘अखिल भारतीय दर्शन-परिषद्’ तथा ‘वर्ल्ड एसोसिएशन फॉर वैदिक स्टडीज’ के अधिवेशनों में सक्रिय भाग लेती रही हैं। उन्होंने अनेक राष्ट्रीय एवं अन्तरराष्ट्रीय संगोष्ठियों में शोध पत्रों की प्रस्तुति की है। डॉ. वेदवती वैदिक ने अमेरिका, चीन, ब्रिटेन, फ्रांस, जर्मनी, स्विट्जरलैंड, आस्ट्रिया, चेकोस्लोवाकिया, त्रिनिदाद, कजाकिस्तान, थाईलैंड, सिंगापुर, मोरिशस, भूटान, अफगानिस्तान, ईरान, इराक, तुर्की, लेबनान, ताइवान, नेपाल, आदि कई देशों की और व्याख्यान यात्रएं की हैं।
वे 1977 से दिल्ली विश्वविद्यालय के मैत्रेयी महाविद्यालय में संस्कृत व्याख्याता तथा अरविन्दो महाविद्यालय (सांध्य) में संस्कृत विभागाध्यक्ष रही हैं। 2014 में वे सेवानिवृत्त हुई। उन्होंने 1986 से दिल्ली विश्वविद्यालय के दक्षिण-परिसर में एम.ए. और एम. फिल. कक्षाओं में अध्यापन एवं शोध निर्देशन भी किया है। वे ‘इंडियन कौंसिल ऑफ हिस्टोरिकल रिसर्च’ की सीनियर फेलो (1980-83) रही हैं। 4 अप्रैल 2019 को उन्होंने महाप्रयाण किया।
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