पुस्तक परिचय
श्रुतिस्तु वेदो विज्ञेयो धर्मशास्त्रं तु वै स्मृतिः’ इत्यादि श्लोकों से वेदपर्यायत्वेन लोकविश्रुत श्रुति शब्द की भाँति स्मृति शब्द को धर्मशास्त्रत्वेन स्वीकार करने की परम्परा प्रतिष्ठित है। धर्मशास्त्रीय परम्परा में धर्म के उपादानों के रूप में जिन आयामों की गणना की गयी है उनमें श्रुति के साथ-साथ स्मृति को भी महत्त्वपूर्ण स्थान प्रदान किया गया है।
आपस्तम्बस्मृति आपस्तम्बीय धर्मशास्त्रपरम्परा का ही उन्मीलन है। रचनाकौशल, प्रतिपाद्य विषय तथा उद्देश्य की दृष्टि से स्मृति ग्रन्थों के निकष पर सर्वथा सिद्ध तथा समर्थ आपस्तम्बस्मृति में आचार, शुद्धि एवं प्रायश्चित्त तथा धर्म एवं दर्शन का मणिकाञ्चन संयोग है। इसके अधिकांश मत मनुस्मृति आदि प्राचीन स्मृतियों के साथ अङ्गिरास्मृति से साम्य युक्त हैं।
अतः विद्वज्जनगम्य आपस्तम्बस्मृति का प्रस्तुत संस्करण पूर्वप्रकाशित संस्करणों के अनुवादकों के विशिष्ट आलोक में अपनी दृष्टि प्रदान करते हुए पृथक्तया सुसज्जित करके इसलिए प्रदर्शित किया जा रहा है। जिससे अपने विशिष्ट परिमल-सुरभि से यह पुष्प पाठकों के हृदय में अपने मधुर मकरन्द का प्रसार करके उनके चित्त को आकृष्ट कर सके।
Reviews
There are no reviews yet.